पेट में दर्द क्यों होता है
(आन्त्रशूल/उदरशूल-पेट में दर्द)
(Intestinal Colic, Colic Pain)
पर्यायवाची-
आमाशमिक शूल (एब्डोमिनल पेन Abdominal Pain) गैस्ट्राल्जिमा
(Gastralgia) तीव्र उदरशूल, मरोड़, कोलिक, पेटदर्द, एंटरैल्जिया (Enteralgia)।
रोग परिचय, कारण व लक्षण
छोटी आंत में रूकावट अथवा किसी अन्य कारण से होने वाले पेट दर्द
में आन्त्र शूल" (इंटेस्टाइनल क्लिक) कहा जाता है । इससे आंतों में
किसी प्रकार का यान्त्रिक परिवर्तन नहीं होता है। विभिन्न अंतरंगों
(विसरा) में तीव्र तथा उद्वेष्टक (स्पासमोडिक-Spasmodic) पीड़ा
को शूल (Colin- कोलिक) कहा जाता हैं इसमें पीड़ित रोगी के पेट के
भीतर सुई गढ़ाने जैसा दर्द होता है, जो अत्यन्त ही भयानक होता है।
इस कष्ट के कारण रोगी अत्यन्त व्याकुल हो जाता है और श्वास तक
नहीं ले पाता है। अस्तु रोगी कष्ट कष्ट से छटपटाता है। इस दर्द की
प्रकृति-ऐंठन, खोंचा मारना, मरोड़ अथवा अकड़न की तरह होती है।
रोगी को पहले नाभि के चारों ओर अथवा पेट के दोनों बगलों से दर्द
आरम्भ होकर तदुपरान्त क्रमश: पेट में चारों ओर फैल जाता है। दर्द
की धमक के कारण रोगी अत्यधिक बेचैन हो उठता हैं यह दर्द रह-रह कर उठता है।
पेट में वायु (गैस) गुड़गुड़ करती रहती है।
रोगी को प्राय: कब्ज रहता है तथा उसका खाना खाने की जो वही
चाहता है, जीघबराता है यहाँ तक कि रोगी को कभी-कभी वमन/कम भी हो जाती है।
इस रोग के प्रमुख कारण नीचे लिखे हैं -
• पाचन शक्ति से अधिक भोजन करना।
• गरिष्ठ खाद्य पदार्थ (देर से पचने वाले) भोजन खाना।
• मिठाइयों का अधिक सेवन।
• आंतों के भीतर बदहज्मी/अजीर्ण खाद्य एकत्रित होना अथवा सड़ते रहना।
• आंतों में कठोर/कड़ा-गठीला मल एकत्रित हो जाना।
• आंतों में कृमि (वर्म)अथवा कोई अन्य बाहरी वस्तु की उपस्थिति।
•तीव्र दस्तावर/विरेचक औषधियों का सेवन करना।
•मोटी रोटी कुछ अधिक दिनों तक खाना
लोभवश बढ़िया/स्वादिष्ट भोजन अधिक खाना
ओस (शबनम) तथा शीत का लगना।
• चाय काफी, आइस क्रीम, बर्फ के शर्बत तथा पानी अधिक पीना।
तीव्र अजीर्ण/बदहज्मी।
• अन्त्रशोथ, पित्त की पथरी या मलाश्मरी और बाल्बुलस (आन्त्र परिवर्तन) आदि कष्टों के कारण।
• यकृत शूल, स्त्रियों में जरामुशूल (यूटेराइन कांलिक) मूत्राश्मरी का शूल, वृक्क/ गुर्दाशूल आदि रोगों की प्रतिक्रिया (Reflexation) के गौण फल के कारण।
• आन्त्र में यान्त्रिक परिवर्तन होकर (यथा-उपान्त्र प्रदाह, आंत रूकना, रक्तामाशमका दर्द, हार्निया।)
• आयुर्वेदानुसार-वातप्रकोप एवं वात (वायु) वृद्धि से, वायु उत्पन्न
कारक पदार्थ यथा, सेम, चना, लोभिया, मटर आदि दलहन अधिक
मात्रा में खाना, ठण्डी और बासीखाद्य खाना, कब्जियत रहने से वायु
का विरोध तथा उसकी उर्ध्वगति होने से।
आंत की भीतरी दीवारों की अनैच्छिक पेशियों के अत्यधिक अनियमित संकुचन से।
पेचिश रोग में-बड़ी आंत के भीतर की दीवार में घाव/जख्म (व्रण/अल्सर) होने पर संकुचन होने से।
आंत तथा ग्रहणी में होने वाले व्रण/फोड़े का फूट जाना।
• बच्चों के पेट में कृमि ( Worms) होना।
•पित्ताशय में पथरी (स्टोन) होना तथा पित्त वाहिनी (बाइल डक्ट) में सूजन होना।
• मधुमेह (डायबिटीज) रोग से पीड़ित रोगी में-शक्कर (शुगर) में वृद्धि हो जाना।
• स्त्रियों में मासिक स्राव के समय उनके गर्भाशय के अनियमित संकुचन के कारण।
• इस रोग के प्रमुख लक्षण नीचे लिखे हैं
रोगी के उदर के ऊपरी भाग में और नाभि के चारों ओर मरोड़ के
सदृश रह-रहकर दर्द उठता है। यह दर्द/शूल घटता-बढ़ता है।
रोगी को मलत्याग पाखाना हो जाने पर प्राय; दर्द कम हो जाता है ।
दर्द कभी कम और कभी अधिक/ तेज होता है। रोगी इस कष्ट के
कारण छटपटाता है। यह दर्द कभी एक स्थान से दूर स्थान पर हटकर
पहुंच जाता है। जोरों से दबाने पर दर्द घटता है, किन्तु कभी-कभी दर्द बढ़ता भी है या फिर कोईअन्तर नहीं पड़ता है।
रोगी के उदर को दबाने से तथा वायु (गैस) निकल जाने से प्रायः रोगी
को आराम मिलता है। यह शूल का दर्द-अधिकांश स्थानों पर गर्म
प्रयोग से घटता है और ठण्डे प्रयोग से बढ़ता है। दर्द के समय रोगी के
पेटपर हाथ रखकर देखने से ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी स्थान
की आंत सिकुड़ी हुई है और किसी स्थान की आंत फूली हुई है।
रोगी को प्रायः ज्वर नहीं होता है तथा प्रायः कब्ज की शिकायत होती है।
रोगी की आंतों के भीतर वायु अथवा तरल पदार्थों के हिलने-डुलने
अथवा आवागमन के कारण से रोगी का पेट गड़गड़ाता है। रोगी को
बूंद-बूंद पसीना आता है तथा हाथ पैर और शरीर ठण्डा हो जाता है।
साथ ही रोगी में मतली/जी घबराना, हिचकी आना, श्वास कष्ट, मूत्र त्याग करने की इच्छा/हजत आदि के लक्षण भी मिलते हैं। रोगी की
पल्स/नाड़ी क्षीण, चेहरा भयभीत तथा चिन्तातुर दीखता है। दर्द की
धमक के कारण रोगी अत्यधिक बेचैन होकर छटपटाता है। रोगी दर्द
काल में स्वास्थ्य लाभ की कामना से कभी पट होकर लेटता है, कभी
पैरों को पेट की ओर मोड़ लेता है तथा तकिया, कुर्सी आदि जो भी
उसे सामने या पास में दीखता है उसी से अपना पेट दबाता है एवं
क्षणभर में लेटता है फिर बेचैनी से उठकर बैठा जाता है। तथा कभी-
कभी व्याकुल चलने/टहलने लगता है। प्रायः रोगी का यह दर्द कुछ सेकेण्ड अथवा मिनट तक चलता रहता है। दर्द कभी धीमा रहता हैतो
कभी तीव्र हो जाता है। कुछ रोगी तीव्र दर्द के कारण बेहोश तक हो जाते हैं। कभी कभी आधा लेट जाने से दर्द कुछ कम हो जाता है।
कुछ रोगी तीव्र दर्द के कारण अपने पेट पर किसी अन्य व्यक्ति या
चिकित्सक हो हाथ भी नहीं रखने देते हैं। यदि दर्द से पीड़ित रोगी को
अफारा का कष्ट पहले से ही हो तो उसके पेट से दुर्गन्धित गैस
निकलती है और डकारें आती हैं। गैस (वायु) से उत्पन्न उदरशूल
अत्याधिक कष्ट प्रद होता है, इसमें रोगी मछली की भांति छटपटाता है।
मल अवरोधक रुक्ष पदार्थ (यथा-जौ, उड़द, मटर, मूंग, मसूर आदि)
कफकारक खाद्य पदार्थों के सेवन से एवं मूत्रत्याग आदि शारीरिक
वेगों को रोकने से भी शूल उठ खड़ा होता है। शूल एकाएक ही प्रारम्भ
होता है और कभी कभी वैसे ही एकाएक शान्त भी हो जाता है।
विशेष -
तीव्रशूल - कई प्रकार का होता है। कभी यह आंतों से उठता है
कभी गुर्दो/वृक्को (Kidneys) में तथा कभी पित्ताशय (माल ब्लेडर)
में। इन सभी शूलों की एक मात्र
चिकित्सा ऐंठन दूर करने वाली औषधियों का प्रयोग करना है।
शूल (कालिक) के विभिन्न प्रकारों की तालिका
आन्त्रशूल (IntestinalColic)-
जैसा कि आप ऊपर/पीछे लिखे वर्णन को पढ़कर समझ ही गये होंगें
कि-यह शूल उदर के ऊपरी भाग एवं नाभि के चारों ओर पेट के काफी स्थान में होता है।
रोगी को दस्त आने पर दर्द कुछ कम हो जाता है। दर्द भाला चुभोने के सदृश उठता है।
इस शूल के ठहर कर मरोड़ की पीड़ा के दौरे पड़ते हैं। रोगी का जी
घबराता है तथा दर्द के कारण रोगी तड़पता है। उसे ऐसा लगता है
मानो उसके प्राण ही निकल जायेगें, वह अपने पेट को बार-बार दबाता है।
वृक्क शूल (Renal Colic)-
यह दर्द वृक्क/ गुर्दा स्थान से उठकर रोगी की जांघों तथा गुप्तांगों तक जाता है।
यह दर्द वृक्क के थोड़े से ही स्थान में सीमित रहता है। रोगी को दस्त
आने पर दर्द में कोई (दर्द घटने-बढ़ने का) अन्तर नहीं पड़ता है। रोगी
को मूत्र गहरे रंग का थोड़ा सा रक्त मिश्रित होता है। शूल की तीव्रता
के कारण रोगी के हाथ-पैर ठण्डे हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर ठण्डे पसीना से भीग जाता है
पित्ताशय शूल (Biliary Colic)-
इस शूल से पीड़ित रोगी को दर्द के दौरे कुछ मिनटों से कुछ घंटों तक
रहते हैं। दर्द में कमी या अधिकता होती रहती है। शूल दर्द के समय
रोगी को उत्क्लेश और वमन (उल्टी) होता है। इस समय रोगी
अत्यधिक बेचैन हो जाता है। रोगी में चिरकारी (पुरानी /जीर्ण) पित्ताशय शोथ के लक्षण मिलते हैं।
अपेण्डी कुलर कांलिक (Appendicular Colic)-
यह दर्द रोगी को नाभि के थोड़े जरा नीचे दांयी ओर बहुत तीव्र/तेज रूप में होता है।
रोगी के पेट को नाभि के दांयी ओर दबाने से उभार सा प्रतीत होता है
और रोगी के दर्द में वृद्धि हो जाती है। रोगी में ज्वर तथा जी
मिचलाने/मितली आने के लक्षण मिलते हैं। रोगी को कम्पन्न होकर
ज्वर 101°F से 102 डिग्री फारेन हाईट तक हो जाता है तथा पल्स
(नाड़ी) की गति /चाल 120 बार प्रति मिनट तक मिलती है। कष्ट के कारण रोगी हिलता-डुलता तक नहीं है।
स्त्रियों का गर्भाशय शूल (Uterine Colic)-
यह शूल रोगिणी को कमर से प्रारम्भ होकर दोनों पैरों की जांघों में
जाता है। रोगियों को ऐसा प्रतीत होता है। रोगिणी को पेट में भी पीड़ा
की अनुभूति होती है। पेट में बोझ/व का अनुभव होता है। मासिक
धर्म प्रायः बन्द होने की रोगिणी शिकायत करती ।
यह शूल कष्टात्वि, प्रसव, हाइडेटी फार्म आदि विकारों में प्रायः होता है।
नोट-कालिक के जो रूप वर्णित है यह सभी अकस्मात् तीव्र शूल के
रूप में प्रकट होते हैं। यह इस बात के परिचायक हैं कि रोगी के उदर
में जो भयंकर पीड़ा हो रही है वह इस कारण से है कि उसके पेट/उदर में कोई उत्पन्न गम्भीर दशा उपस्थित हो रही है।
जिससे रोगी का जीवन संकटमय हो जाता है। अतः उसकी तत्काल ही समुचित चिकित्सा अत्यावश्यक है।
तीव्र रूप में हुए इस रोग में अचानक रोगी को सम्पूर्ण पेट पर दर्द
लगने लगता है जो बहुधा तो बना ही रहता है तथा कभी-कभी ठहर-ठहर कर भी उठता है।
रोगी में भोजन के लिए अरुचि रहती है और वमन/क्या भी होती है।
रोगी के पेट पर अफारा दीखता है तथा वह अकड़ा हुआ होता है। स्पर्शक्षमता का लक्षण भी होता है।
रोगी में सदमा/शांक (Shock) के लक्षण यथा शैथिल्य (Prostration), पसीना, चिन्ता आदि के लक्षण होते हैं।
मल में रक्त होता है। रक्त जाँच (Blood Test ) में श्वेत कणों की वृद्धि होती है।
भोजनोपरान्त कष्ट वृद्धि होती है। निराशा (खाली पेट) रहने पर रोगी आराम में रहता है।
Aortography से इसका निश्चय होता है। शल्यकर्म (ऑपरेशन)
द्वारा रोग कान्त आंत के भाग को निकालने से ही यह रोग ठीक हो
सकता है तथा सदमा/शांक (Shock) के ही समान इसकी
चिकित्सा होनी चाहिए यानि मृत आँत को काटकर (Resection)
करने से ही रोगी के प्राणों को बचाया जा सकता है।
चिरस्थायी शिरावेध में भी Endarterectomy का शल्यकर्म ही इसकी चिकित्सा है।
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